चमकती रही रात भर परछाई, दिन के उजाले की,
गूंजती रही ज़हन में खनक, तेरे खिलखिलाने की,
जब से आया हूँ यहाँ, आया हूँ मैं या नहीं?
आईना उठा कर जब भी देखा, शक्ल दिखाई दी माज़ी की।
आदत बहुत ख़राब चीज़ है, जीना दूभर हो जाता है,
तुम हो - नहीं - भी हो सकता है, सोचकर जी घबराता है,
आलम अब कुछ ऐसा है, रात आती है पर जाती नहीं,
रोज़ सुबह से शाम किये, दिन किवाड़ खटखटाता है।
जी तो चाहा पर रो न सका, पलक तो झपकी मैं सो न सका,
पेशानी पे लिपटी लकीरों को सहलाया, इक सार किया,
और तेरी तस्वीर को, तेरे दिए बटुए में लिए,
मैं फिर आगे बढ़ चला, मैं फिर आगे बढ़ चला।
- फ़नकार