Aug 17, 2011

हाल

ये कैसा मौसम आया है, ये कैसी हवा चली है,
मेरे वतन को, जाने किस की नज़र लगी है,
हरसू बदहवासी, मायूसी का आलम बरपा है,
खिज़ा की यह मियाद, जाने और कितनी लम्बी है!


उजाड़ से इस बागीचे में, कभी आस का पंछी रहता था,
बहार यहाँ पर बसती थी, रंगों-खुशबू का यह मरकज़ था,
ज़मज़म-ऐ-तालाब सूख गया, प्यास ने पंछी मार दिया,
ख़ुश्क मिज़ाज, इस समाज ने, इंसानियत को राख किया!


आखरी बार सन सैंतालिस में, जो बीज बोये थे उम्मीदों के,
पेड़ वो आज ठूंठ हैं, ख्वाब वो आज बंजर हैं,
उठो, चलो, फिर उगाई करनी है, फिर से पानी देना है,
मुल्क़ के इस जर जर पिंजर को जगाना है, जिंदा करना है!


                                                                       
                                               - फ़नकार