Oct 13, 2011

तुम और मैं


आधी-अधूरी-अजनबी-अनजान,

बिखरी-बिखरी, अब मेरी पहचान,
बदरंग, बैरंग, वो कमरे, ये दालान,
तुम्हारा जाना क्या हुआ,
घर बना मकान..

समय ने धार उल्टी बही,
सांस जाती रही...जाती रही,
सब कुछ, धुंधला-धुंधला,
बात, कुछ भी, समझ आती नहीं..

मन वैरागी हुआ जाता है,
पकड़ लूं, जकड़ लूं,
वो दूर भागना चाहता है,
तुम थीं... नहीं...हो
वो जानता है, मैं मानता हूँ
बस! और नहीं, थक गया हूँ,
व्यर्थ - यह  उलझन, सुलझाना चाहता हूँ..

यह क्या...किसका प्रतिबिम्ब दिखा?
अंतरात्मा...अहा! उत्तर मिला!

अहम्, ज्ञान, बुद्धि, व्यव्हार,
प्रेम, पराक्रम, धैर्य, आचार,
दो जीव, हम दोनों, भिन्न दृष्टि और चार,
जान लें, मान लें, जीवन का सरल सार!