Mar 21, 2012

ख़याल


ज़ुबाँ तक आते आते, साँस मद्धम हो जाती है,
चल तो पड़ती है मगर, ज़हन में घर कर जाती है,
सहन-नुमा, कमरों से घिरी तेरी बात,
दर तक आते आते, दीवार खड़ी हो जाती है। 

ज़िन्दगी की किताब न जाने कितनी बार पढ़ी है, 
वही लिखावट पन्नों पर, पर कहानी नित नयी खड़ी है, 
ख़ुदी को सब मालूम है, क्या सही है क्या ग़लत,
चेहरे पे मुखौटा चढ़ा है, आईने पे निगाह गड़ी है। 

क्या कहे, कैसे कहे, क्यों कहे, दिल सोचता है,
सवालों के अँधेरे खण्डहर में, जवाब की लौ खोजता है,
इल्म, हक़ीक़त या किरदार, ज़मीनी दायरों के परे,
तेरे ख़याल की टोह लिए, हवाओं पे टहला फिरता है। 

- फ़नकार


4 comments:

  1. nice composition dude!! so the Hindi-Urdu Shabad khosh is really coming handy... good work!!

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  2. you bet...sadaakat came from there :))

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  3. Beautiful expression! It is remarkable to give words to such vague thoughts...but that is what poetry is.Keep it up. Ma.

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